जीवनसंवाद: पिता से प्रेम की लुकाछुपी!

हम जिस तरह के समाज में रहते हैं. वहां पिता बच्‍चे से प्रेम तो खूब करते हैं लेकिन उसे अभिव्‍यक्त करने में संकोच बरतते रहे हैं. उनका स्नेह आंखों से बरसता है. व्‍यवहार में झलकता है. हां, शब्‍दों में कम आता है.


कुछ समय पहले एक दोस्‍त ने बीमारी के चलते अपने पिता को खो दिया. उन्‍होंने अपने पिता के प्रति प्रेम साझा करते हुए कहा कि न कभी हम पापा से जी भर के प्‍यार का अहसास करा सके, न पापा! हमारे यहां लाड़ करने का काम मां के हिस्‍से इतना ज्‍यादा हो गया कि कई बार पिता न चाहते हुए भी हाशिए पर चले जाते हैं. अपने यहां पिता को डांटने, कड़ाई से पेश आने का दायित्‍व सौंपा गया है. जो इस समय पिता हैं, संभव है, वह बच्‍चों से खुलकर प्रेम जता रहे हों, लेकिन वह स्‍वयं अपने पिता से प्रेम की लुकाछुपी से इनकार नहीं कर सकते.


इससे हुआ यह कि ऐसे पिता जो इस समय दादा/नाना हैं या ऐसा होने की ओर बढ़ रहे हैं, उनके साथ संवाद करने वालों की कमी हो रही है. आप कह सकते हैं कि यह तो हमेशा से था, इसमें नया क्‍या है. पहले संयुक्‍त परिवार में प्रेम करने वालों की कमी नहीं थी. वहां संवाद के लिए समय कम नहीं था. बच्‍चे बंटे नहीं थे. स्‍नेह बंटा नहीं था. बच्‍चों के पास दादा/नाना रहते थे. दादा/नाना को बच्‍चों से फुर्सत नहीं मिलती थी.



अब बच्‍चों की सबसे बड़ी मुश्किल उनके पास प्‍यार करने के लिए केवल माता-पिता का होना है. माता–पिता को ही दादा/दादी के हिस्‍से का प्‍यार करना है. बच्‍चों के स्‍नेह, अनुराग में समय की कटौती उनकी प‍रवरिश को कठिन बना रही है.


आखिर माता-पिता अकेले कहां से सबके हिस्‍से का स्‍नेह लेकर आएं. उनके लिए यह मुश्किल वक्‍त है. बच्‍चों के दादा/दादी दूसरे शहर में हैं. कोई उनको साथ रखना नहीं चाहता तो कोई चाहकर भी साथ नहीं रह सकता. जरूरी नहीं कि बड़ों को ही सारे समझौते करने के लिए मजबूर किया जाए.


मेरे माता-पिता मेरे साथ नहीं रहते. क्‍योंकि उनको अपना समाज है. उनकी अपनी दुनिया है. उनका रचा संसार उनके शहर में है. इसलिए मैं भी नहीं चाहता कि उनको यहां परिवार का कैदी बना दिया जाए. लेकिन कुछ मित्रों के माता-पिता एक ही शहर में रहते हुए एक-दूसरे से दूर हैं. उनके बीच का स्‍नेह छोटे-छोटे मन मुटाव को पार नहीं कर पाता.